एक समय था, जब शिक्षक शब्द प्रचलन में नहीं था |


एक समय था, जब शिक्षक शब्द प्रचलन में नहीं था, गुरुदेव था, गुरु था, गुरु जी था लेकिन गुरु शब्द के अर्थ बदल गए। अब गुरु उसे कहते हैं जो चतुर हो, समर्थ हो, बलशाली हो या धूर्त हो। इस प्रकार 'गुरु' अब गुरु नहीं रह गए, शिक्षक बन गए। गुरु का पद दूसरों ने हथिया लिया।
आदि मानव असभ्य था। समय के साथ, अपना पेट भरने के अतिरिक्त और भी सीखने की ज़रूरत महसूस की गई इसलिए गुरुकुल बने, जहां भाषाओं को समृद्ध किया गया, युद्ध कौशल सिखाया गया और जीवन प्रबंधन भी।
आधुनिक काल में शिक्षा सर्वव्यापी हो गई, वह ज्ञान अर्जित करने के अलावा रोजगार मूलक भी हो गई जिसके कारण प्रत्येक मनुष्य शिक्षा से जुड़ गया और मानव जाति में ज्ञान और दक्षता विकास के नए द्वार खुल गए। प्रजातन्त्र के आगमन ने शिक्षा का महत्व को अधिक बढ़ा दिया और यह धारणा बनी कि नागरिक जागरूकता के लिए शिक्षित होना अनिवार्य है।
बात शुरू हुई शिक्षित करने से लेकिन रुक गई साक्षर बनाने में। जिसे अक्षरज्ञान हो गया, वह शिक्षित मान लिया गया और सरकारी आंकड़ों में शिक्षा का प्रसार दिखने लगा जबकि शिक्षाशास्त्रियों ऐसा अनुमान था कि शिक्षित समाज सभ्य बनेगा, विनयशील बनेगा और मनुष्यता का विकास करेगा।
सबसे पहले यह समझा जाए कि एक अशिक्षित, शिक्षित और सभ्य में क्या अंतर है। आपके हाथ में एक चींटी चढ़ गई, आपने उसे दूसरे हाथ की उंगलियों से वार करके मार दिया, इसका अर्थ है कि आप अशिक्षित हैं। आपके हाथ में एक चींटी चढ़ गई, आपने उसे अपनी उंगलियों से खिसका कर बाहर फेंक दिया, इसका अर्थ है कि आप शिक्षित हैं। आपके हाथ में एक चींटी चढ़ गई, आपने उसे फूँक कर धीरे से गिरा दिया, इसका अर्थ है कि आप सभ्य हैं।
अब हम अपने आसपास के माहौल को गौर करें कि शिक्षा के प्रसार का असर क्या वैसा हुआ, जैसा सोचा गया था ? क्या वर्तमान 'एजुकेटेड' समाज आपको पहले के समाज से अधिक शिष्ट और सभ्य दिख रहा है ?
आज़ादी के बाद सरकार ने शिक्षा के प्रसार के लिए सार्थक प्रयास किए, समाज में अधिकारों के प्रति जागरूकता भी आई लेकिन कर्तव्य के प्रति तथाकथित शिक्षित लोग उदासीन होते गए। उसका परिणाम है, देश में बढ़ रही अराजकता और अपराध। शिक्षा, नागरिकों को नियमों के अधीन रहने और स्वयं को नियंत्रण में रहने की सोच विकसित करती है। अपने अधिकारों के साथ-साथ दूसरे के अधिकारों का सम्मान करने की शिक्षा देती है। शिक्षा केवल किताबी शिक्षा नहीं होती, वह मनुष्य के व्यवहार विज्ञान का प्रायोगिक प्रशिक्षण है।
अब शिक्षा वेगवती नदी की तरह हो गई है जो अपने साथ पानी तो ला रही है लेकिन अपने किनारों को लांघकर आसपास की आबादी और फसल को उजाड़ रही है। शिक्षा ने समाज को प्रशासनिक अधिकारी दिए, डाक्टर दिए, इंजीनियर दिए, वैज्ञानिक दिए, उद्योगपति दिए, प्रोफेसर दिए, शिक्षक दिए लेकिन मनुष्य और मनुष्यता छीन ली। उन्हें काबिल बनाया लेकिन वे 'सर्वजन हिताय' नहीं, केवल स्वहिताय सिद्ध हुए। उन्हें इतना समझ में नहीं आता कि उनकी शैक्षणिक उपलब्धि उनके अपने पैसों से नहीं, समाज के धन से हुई है। समाज ने उनसे एक सामाजिक प्राणी बनने की उम्मीद की थी लेकिन वे केवल खुद में सिमट गए। क्या कोई समाज या राष्ट्र इस तरह की सोच से गौरवान्वित होता है, आगे बढ़ सकता है?
हमें शिक्षा और शिक्षा देने की आवश्यकता पर नवीन दृष्टिकोण से देखने और समझने की ज़रूरत है ताकि शिक्षा जनोपयोगी बन सके, सबके काम आए। शिक्षक बनना अलग बात है और शिक्षक होना अलग बात है।
जैसे पौधे हम आज बोएँगे, वैसे ही वृक्ष भविष्य में तैयार होंगे। हमें छायादार वृक्ष तैयार करने हैं जो पथ पर चलने वाले प्राणियों को छाया दे, प्राणवायु दे, फल दे। आइए हम सब संकल्प लें कि आने वाली पीढ़ी हमारे सार्थक योगदान के लिए हमें याद करे और सुख व शांति से रह सके।

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